मेरे मित्र प्रोफेसर Sandeep Gupta पिछले दिनों अपने बाग के आम लेकर आए थे। उनके साथ मैं पहले बाग देखकर आया था लेकिन तब आम कच्चे थे। बरौली से 2 किलोमीटर पहले सड़क से लगभग लगा हुआ उनका बाग है। विश्वविद्यालय परिसर से बरौली 12 किलोमीटर है। इस प्रकार #साइकिल_से_सैर के लिए मैंने वहां जाकर आने का आज का लक्ष्य 20 किलोमीटर निर्धारित किया था।
वैसे तो मैं उनके साथ कार से जा चुका हूं लेकिन आज साइकिल से वहां पहुंचने की कोशिश में भटक गया। झिझौली गांव के आगे "बरौली 2 किमी" का माइलस्टोन आया तो मैं उस कच्ची सड़क के मोड़ को तलाशने लगा जो उनके बाग में जाती है। लेकिन वह चकरोड मिली ही नहीं। लगभग 1 किमी आगे जो कच्ची सड़क मिली वह मुझे किसी दूसरे बाग में ले गई। वहां एक पेड़ के नीचे बहुत से आम टपके हुए पड़े थे। मैने दो चार बड़े - बड़े आम उठा लिए। पक्के दशहरी थे। एक तरफ हल्के पीले या धानी झलक के साथ प्रायः हरे रंग के। मैने चारो ओर दृष्टि दौड़ायी ताकि इस बाग के रखवाले को देख सकूं और उसकी सहमति से कुछ आम इकठ्ठे कर उसका मूल्य चुका सकूं। लेकिन दूर - दूर तक रखवाला नहीं दिखा। मैने आम वहीं पर छोड़ दिए। तभी एक लड़का सड़क पर जाता दिखाई दिया। उससे पूछने पर पता चला कि मुख्य सड़क की ओर शायद रखवाला मिल जाय। उसने कहा कि आप ये आम अभी लेकर उधर जा सकते हैं।
मैंने संकोच त्यागकर आम झोली में रखे और मुख्य सड़क पर आ गया और बाग के भीतर झांकता रहा। तभी रखवाले की बरसाती दिखी जहां एक साइकिल खड़ी थी। मैने अपनी साइकिल उस पगडंडी पर उतार दी जो उस ठीहे पर जाती थी। दूर एक पेड़ के नीचे आम बीनता रखवाला दिख गया। मैने उसके पास जाकर उसे पूरी बात बताई और कुछ और आम खरीदने की इच्छा व्यक्त की। उसने कुछ लंगड़ा आम इकठ्ठा कर रखे थे। उसे देते हुए बोला कि यह सब ले जाइए। लेकिन पैसा नहीं लूंगा। मालिक अभी हैं नहीं। मैने उसे चाय पानी के लिए कहकर यथोचित धनराशि जबर्दस्ती थमायी और वापस लौट पड़ा।
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रास्ते में दोनो तरफ आम के बाग ही बाग पड़ते हैं। दशहरी, मालदा और लंगड़ा की जबरदस्त पैदावार हुई है। लेकिन मैं देसी आम तलाश रहा था। पेट्रोल पंप के आगे बढ़ा तो वह बाग मिला जहां मैं एक बार पहले भी आ चुका था। तब देसी आम तैयार नहीं थे। इस बार पूछने पर ठेकेदार ने झट डेगची उठाई और देसी आम बीनने चल पड़े। मैंने भी साइकिल खड़ी की और उसके पीछे चल दिया। पूरे बाग में आम टपके पड़े थे। लेकिन वो एक खास देसी प्रजाति के पेड़ के नीचे रुके। पेड़ से टपके इतने ताजे आमों को देखकर मैं अपना लोभ संवरण नहीं कर सका। देसी आम के अलावा मैने दो चार दशहरी, मालदा और लंगड़ा भी उठा लिए।
डेगची भरकर हम दोनो वापस लौटे। छंटनी करके आम की तौल की गई। मैंने उसकी मुंहमांगी कीमत चुकाई जो बाजार दर से बहुत कम थी। दो पके आम जो जमीन पर टपकते ही फट गए थे उन्हें वहीं धुलकर मैंने उदरस्थ किया। अहा! क्या स्वाद मिला! उन्होंने आमों की भारी पोटली मेरी साइकिल के कैरियर पर ठीक से बांध दी। मैंने प्रमुदित मन से पैडल दबाया और वापस चल पड़ा।
आगे एक विराम उस महकते धान के खेत पर लेना पड़ा। इसकी बालियां अब भरपूर बढ़ आई हैं। अब चावल के दाने विकसित हो रहे होंगे। दस पंद्रह दिन में यह फसल काटने के लिए तैयार हो जायेगी। इसके ठीक सामने सड़क की दूसरी ओर के खेत में अभी अभी धान की रोपनी की गई थी। बल्कि आजकल धान की रोपनी का सीजन अपने उत्स पर है। एक खेत में धान रोपती स्त्रियों का सुंदर दृश्य भी दिखा लेकिन मैंने संकोचवश फोटो लेने का विचार त्याग दिया।
आज की यात्रा में 22 किमी से अधिक का साइकिल चालन हुआ जो कार्डियोवैस्कुलर व्यायाम की श्रेणी में आता है। इससे मेरे व्यायाम निर्देशक निश्चित ही बहुत प्रसन्न होंगे।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)