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रविवार, 14 जुलाई 2024

बाग में टपके आम बीनने का मजा

मेरे मित्र प्रोफेसर Sandeep Gupta पिछले दिनों अपने बाग के आम लेकर आए थे। उनके साथ मैं पहले बाग देखकर आया था लेकिन तब आम कच्चे थे। बरौली से 2 किलोमीटर पहले सड़क से लगभग लगा हुआ उनका बाग है। विश्वविद्यालय परिसर से बरौली 12 किलोमीटर है। इस प्रकार #साइकिल_से_सैर के लिए मैंने वहां जाकर आने का आज का लक्ष्य 20 किलोमीटर निर्धारित किया था।

वैसे तो मैं उनके साथ कार से जा चुका हूं लेकिन आज साइकिल से वहां पहुंचने की कोशिश में भटक गया। झिझौली गांव के आगे "बरौली 2 किमी" का माइलस्टोन आया तो मैं उस कच्ची सड़क के मोड़ को तलाशने लगा जो उनके बाग में जाती है। लेकिन वह चकरोड मिली ही नहीं। लगभग 1 किमी आगे जो कच्ची सड़क मिली वह मुझे किसी दूसरे बाग में ले गई। वहां एक पेड़ के नीचे बहुत से आम टपके हुए पड़े थे। मैने दो चार बड़े - बड़े आम उठा लिए। पक्के दशहरी थे। एक तरफ हल्के पीले या धानी झलक के साथ प्रायः हरे रंग के। मैने चारो ओर दृष्टि दौड़ायी ताकि इस बाग के रखवाले को देख सकूं और उसकी सहमति से कुछ आम इकठ्ठे कर उसका मूल्य चुका सकूं। लेकिन दूर - दूर तक रखवाला नहीं दिखा। मैने आम वहीं पर छोड़ दिए। तभी एक लड़का सड़क पर जाता दिखाई दिया। उससे पूछने पर पता चला कि मुख्य सड़क की ओर शायद रखवाला मिल जाय। उसने कहा कि आप ये आम अभी लेकर उधर जा सकते हैं।

मैंने संकोच त्यागकर आम झोली में रखे और मुख्य सड़क पर आ गया और बाग के भीतर झांकता रहा। तभी रखवाले की बरसाती दिखी जहां एक साइकिल खड़ी थी। मैने अपनी साइकिल उस पगडंडी पर उतार दी जो उस ठीहे पर जाती थी। दूर एक पेड़ के नीचे आम बीनता रखवाला दिख गया। मैने उसके पास जाकर उसे पूरी बात बताई और कुछ और आम खरीदने की इच्छा व्यक्त की। उसने कुछ लंगड़ा आम इकठ्ठा कर रखे थे। उसे देते हुए बोला कि यह सब ले जाइए। लेकिन पैसा नहीं लूंगा। मालिक अभी हैं नहीं। मैने उसे चाय पानी के लिए कहकर यथोचित धनराशि जबर्दस्ती थमायी और वापस लौट पड़ा।

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रास्ते में दोनो तरफ आम के बाग ही बाग पड़ते हैं। दशहरी, मालदा और लंगड़ा की जबरदस्त पैदावार हुई है। लेकिन मैं देसी आम तलाश रहा था। पेट्रोल पंप के आगे बढ़ा तो वह बाग मिला जहां मैं एक बार पहले भी आ चुका था। तब देसी आम तैयार नहीं थे। इस बार पूछने पर ठेकेदार ने झट डेगची उठाई और देसी आम बीनने चल पड़े। मैंने भी साइकिल खड़ी की और उसके पीछे चल दिया। पूरे बाग में आम टपके पड़े थे। लेकिन वो एक खास देसी प्रजाति के पेड़ के नीचे रुके। पेड़ से टपके इतने ताजे आमों को देखकर मैं अपना लोभ संवरण नहीं कर सका। देसी आम के अलावा मैने दो चार दशहरी, मालदा और लंगड़ा भी उठा लिए।

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डेगची भरकर हम दोनो वापस लौटे। छंटनी करके आम की तौल की गई। मैंने उसकी मुंहमांगी कीमत चुकाई जो बाजार दर से बहुत कम थी। दो पके आम जो जमीन पर टपकते ही फट गए थे उन्हें वहीं धुलकर मैंने उदरस्थ किया। अहा! क्या स्वाद मिला! उन्होंने आमों की भारी पोटली मेरी साइकिल के कैरियर पर ठीक से बांध दी। मैंने प्रमुदित मन से पैडल दबाया और वापस चल पड़ा।

आगे एक विराम उस महकते धान के खेत पर लेना पड़ा। इसकी बालियां अब भरपूर बढ़ आई हैं। अब चावल के दाने विकसित हो रहे होंगे। दस पंद्रह दिन में यह फसल काटने के लिए तैयार हो जायेगी। इसके ठीक सामने सड़क की दूसरी ओर के खेत में अभी अभी धान की रोपनी की गई थी। बल्कि आजकल धान की रोपनी का सीजन अपने उत्स पर है। एक खेत में धान रोपती स्त्रियों का सुंदर दृश्य भी दिखा लेकिन मैंने संकोचवश फोटो लेने का विचार त्याग दिया।

आज की यात्रा में 22 किमी से अधिक का साइकिल चालन हुआ जो कार्डियोवैस्कुलर व्यायाम की श्रेणी में आता है। इससे मेरे व्यायाम निर्देशक निश्चित ही बहुत प्रसन्न होंगे।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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शनिवार, 6 जुलाई 2024

झमाझम मानसून और अमराई में ताक-झांक

साइकिल_से_सैर

मानसून के बादल पूरे उत्तर भारत के ऊपर छा चुके हैं। प्रचंड गर्मी के बाद पड़ने वाली पहली फुहारों का तेजाबी चरण भी निपट गया है। अब बरसात में भींगने का आनंद लेने का समय आ गया है। इसी आनंद के लिए में अलस्सुबह साइकिल लेकर पुंवारका से बरौली की ओर निकल पड़ा।

रिमझिम बारिश का असर क्या है? आम जनजीवन के साथ-साथ इस राह में पड़ने वाले चहुंओर फैले आम के बगीचों, धान के हरेभरे महकते खेतों और खुले आसमान के नीचे रहने वाली भेड़ों का मेघवृष्टि ने क्या हाल किया है? आज मुझे यह देखने का मौका तो मिला ही, साइकिल चलाते हुए भींगकर खुले आसमान में शुद्ध हवा व पानी के बीच फेंफड़ों में भरपूर ऑक्सीजन भर लेने का लाभ भी मिला।

आज गांव के लोग घर के बाहर कम ही दिखे। इक्के दुक्के लोग छाता लगाकर आते-जाते दिखे। अनुमान हुआ कि कदाचित् ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम के अंतर्गत हर घर में शौचालय सुनिश्चित करने की सरकारी योजना इनके घर तक नहीं पहुंची है। भरी बारिश के बीच एक मोहतरमा अपने पक्के दुआर पर झाड़ू लगा रही थीं और बहारन को फुटपाथ पर इकठ्ठा कर रही थीं। लखनौती गांव के बड़े से तालाब की सतह पर मछलियों की हलचल कुछ बढ़ी हुई लगी। पानी के ऊपर मंडराता हुआ केवल एक ही बगुला दिखा जो शायद अधिक भूखा होगा। वर्ना अधिकांश तो बारिश में उड़ने के बजाय शांत बैठकर मौन साधना कर रहे थे।

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खेतों की हरियाली बारिश से धुलने के कारण कुछ ज्यादा ही निखर आई थी। उसपर हल्की हवा का इशारा पाकर पेड़ पौधे मस्ती से झूम रहे थे। पशुओं के चारे के लिए खेतों में ज्वार बाजरा की फसल जो ज्यादा बढ़ गई थी उसे बारिश के साथ आने वाली तेज हवाओं ने जमीन पर सुला दिया था। एक किसान इस चारे को खेत से जल्दी निकाल लेने की तजबीज करता दिखा। गन्ने की फसल तनकर खड़ी थी क्योंकि चतुर किसानों ने समय रहते गन्नों को समूहों में बांध दिया था।

छः किलोमीटर की यात्रा पूरी करने के बाद मैं एक बड़े से बाग में चला गया। बाग के बीच में रखवाली के लिए बनाए गए पक्की छत वाले चबूतरे की ओर जाने के लिए सड़क से उतरा तो एक कच्ची पगडंडी मिली जिसपर पानी जमा होने से फिसलने का डर था। मैंने साइकिल को भरपूर सावधानी से आगे बढ़ाया। फिर भी एक जगह फंस ही गया। मजबूरी में एक पैर उस कीचड़ में उतारना पड़ा।

रखवाली के उस अड्डे पर दो खाटें पड़ी थीं। एक खाली थी और दूसरी पर रखवाले साहब सो रहे थे। थोड़ी देर रुककर मैंने उन्हें जगा दिया। वे हड़बड़ाकर उठे और मेरा परिचय पूछा। फिर मेरे पूछने पर उन्होंने अपना जो अस्पष्ट नाम बताया उसमें मुझे रॉकिन शब्द ध्वनित हुआ। रॉकिन ने बताया कि कुल 250 पेड़ों वाले बाग को उन्होंने दो साल की फसल के लिए 13 लाख में खरीदा है। मैंने पेड़ से टपके देसी आम के बारे में जानकारी चाही तो उन्होंने एक टोकरी दिखाई। दशहरी और मालदा के बीच अटके पड़े दो-चार छोटे-छोटे पीले रंग के बीजू आम दिखाई दिए। मैंने दो आम वहीं चख लिए जिसमें पहला खट्टा निकला और दूसरा मीठा। मैने मीठे वाले की शक्ल-सूरत वाले मुश्किल से तीन चार आम टोकरी से खोज निकाले और एक पॉलीथिन में लटकाकर रॉकिन को धन्यवाद देकर वापस लौट पड़ा।

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वापसी में मैंने उस महकते धान के खेत पर रुककर एक-दो तस्वीरें लीं। इस खेत के धान की बालियां अब सभी पौधों में निकल आई हैं। हमारे अपने गांव में जो पूर्वी उत्तर प्रदेश में है अभी धान की रोपाई चल रही है।

भेड़ों के बाड़े के पास आकर मैंने जो देखा उससे मन थोड़ा दुखी हो गया। बारिश में भींगने से बचाव का कोई रास्ता उन बेचारी भेड़ों के पास नहीं था। उनका बाड़ा चार दीवारों और दरवाजों वाला तो है लेकिन उसमें कोई छत नहीं है। भींगती हुई भेड़ें कष्ट में थीं। उनका करुण क्रंदन यही बता रहा था। उनके पालक गड़ेरिए प्रमोद ने अपने बचाव के लिए सड़क किनारे एक कामचलाऊ बरसाती डाल रखी थी। लेकिन यह भी कतई सुरक्षित नहीं थी।

बाड़े के सामने ही सड़क की दूसरी ओर स्थित ईंट भट्ठे की स्थाई चिमनी शांत पड़ी थी। अर्थात् उसमें से धुआं नहीं निकल रहा था। अब पहले से तैयार पकी हुई ईंटों को बेचकर काम चलेगा। गेट के भीतर एक खाली बुग्गी खड़ी थी जिसमें जुता हुआ घोड़ा भी खुले में भींगने को मजबूर बोझ लादे जाने की प्रतीक्षा कर रहा था।

कुल 12 किलोमीटर की सैर के बाद वापस लौटा तो साइकिल और क्रॉक्स की चप्पल सहित मेरे सभी कपड़े भींगे हुए तो थे ही उनमें कीचड़ भी पर्याप्त मात्रा में सनी हुई थी। लेकिन मन में केवल आनंद ही आनंद घुला हुआ था। घर के बाहर की तस्वीरें बाद में रीटेक करनी पड़ी क्योंकि इसे खींचने के लिए मेरे सहायक मेरे बुलाने पर बाहर आए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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रविवार, 30 जून 2024

सहारनपुर के बाग के आम और महकता धान का खेत

#साइकिल_से_सैर

आज दुबारा पुंवारका से बरौली रोड पर 8 किलोमीटर तक बिना रुके साइकिल से गया। मील के पत्थर पर रुका, कुछ सेल्फी ली और वापस मुड़कर पैडल पर पांव रखते हुए यह सोचने लगा कि जब दूरी की इकाई किलोमीटर में लिखी है तो इसे 'माइल-स्टोन' क्यों कहते हैं। अंग्रेजी विरासत यहां भी उपस्थित है।

वापसी के दौरान बरबस मुझे दो - तीन बार रुकना पड़ा।

सबसे पहले एक आम के बाग ने आकर्षित किया। मैने रुककर पूछा कि पककर तैयार आम मिलेंगे क्या? वहां खड़े एक आदमी ने टोकरी दिखाई जिसमें डाल से टपके हुए फल रखे थे। मैने चुनचुनकर 10-12 ताजे आम निकाले, डिजिटल तराजू पर तौल कराई, पैसे दिए और साइकिल के कैरियर पर थैली को बांधकर चल दिया। इसमें मालदा, दशहरी, और एक अन्य कलमी प्रजाति भी थी जो मुझे याद नहीं। देसी प्रजाति वाले बिज्जू आम दो चार दिन बाद मिलेंगे।

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रास्ते में जो सबसे बड़ा वाला तालाब है उसके ऊपर दो तीन बगुले मंडरा रहे थे। वे पानी की सतह पर खुली हवा में सांस लेने के लिए ऊपर आने वाली मछलियों के शिकार का प्रयास कर रहे थे। मन हुआ कि इसका वीडियो बनाऊँ लेकिन संकोच कर गया। कार्डियो वर्कआउट में विराम जो लग जाता।

आगे बढ़ा तो एक हरे-भरे खेत के बगल से गुजरते हुए मेरे नथुने एक विशेष सुगंध से भर उठे। ऐसी सुगंध तो रसोई में तब फैलती है जब बासमती या कालानमक चावल उबल रहा होता है। मैं वहां बरबस ही रुक गया। किसी सुगंधित प्रजाति का धान था जिसकी बालियां इस खेत में फूटने वाली थीं। देखने से स्पष्ट था कि यह किसी बड़े और शौकीन किसान का खेत है। खेत की तस्वीर में इससे उठती मादक सुगंध तो कैद नहीं हो सकती थी लेकिन इसके सौंदर्य का आनंद तो लिया ही जा सकता है।

आगे बढ़ा तो एक गड़ेरिए का बाड़ा मिला जहां भेड़ों का समूह शांति से बैठकर आराम कर रहा था। मेरी नजर एक किनारे पर गई तो देखा कि एक भेड़ सिर को जमीन पर चिपकाए हुए आपादमस्तक पसरी हुई है और लगभग उसके ऊपर ही बैठा हुआ एक आदमी उसके बाल काट रहा है। कौतूहल वश साइकिल खड़ी करके मैं उसके पास चला गया। भेड़ के बाल काटने की कैची कुछ विशिष्ट आकार-प्रकार की थी। इसे चलाने के लिए दोनो हाथों की जरूरत पड़ती है। गड़ेरिया प्रमोद ने बताया कि साल में तीन बार बाल काटे जाते हैं। उनके पास कुल 130 भेंड़ और 7-8 बकरियां हैं। रोज उन्हें जंगल में चराने ले जाते हैं। इनके भटक जाने या चोरी हो जाने का डर बना रहता है। इसलिए बहुत निगरानी रखनी पड़ती है। भेंड़ के बाल की तौल की इकाई 'धड़ी' होती है जो लगभग 5 किलो के बराबर होती है।

यह सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने और केश-कर्तन का वीडियो बनाकर मैं आगे बढ़ा और घर लौट आया। आम का थैला खोलकर उसमें से एक आम निकाला जो डाल से अपने आप टपका हुआ था। बाग वाले ने इसे मालदा बताया था। स्वाद में मुझे यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के कपुरी जैसा लगा।

सच में प्रकृति के समीप जाने का अवसर मिले तो आनंद ही आनंद मिलता है। आधुनिक मशीनी सभ्यता में जीवनयापन करते हुए भी इसका अवसर खोजते रहना चाहिए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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